भैरव
भैरव या भैरवनाथ (शाब्दिक अर्थ- 'जो देखने में भयंकर हो' या जो भय से रक्षा करता है ; भीषण ; भयानक) हिन्दू धर्म में शिव के पांचवे अवतार माने जाते हैं।
शैव धर्म में, भैरव शिव के विनाश से जुड़ा एक उग्र अवतार हैं। त्रिक प्रणाली में भैरव परम ब्रह्म के पर्यायवाची, सर्वोच्च वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। आमतौर पर हिंदू धर्म में, भैरव को 'दंडपाणि' (जिसके हाथ में दण्ड हो) और 'स्वस्वा' (जिसका वाहन कुत्ता है) भी कहा जाता है। वज्रयान बौद्ध धर्म में, उन्हें बोधिसत्व मंजुश्री का एक उग्र वशीकरण माना जाता है और उन्हें हरुका, वज्रभैरव और यमंतक भी कहा जाता है।
वह पूरे भारत, श्रीलंका और नेपाल के साथ-साथ तिब्बती बौद्ध धर्म में भी पूजे जाते हैं। हिन्दू और जैन दोनों भैरव की पूजा करते हैं।
उपासना की दृष्टि से भैरवनाथ एक दयालु और शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता हैं तथा उज्जैन में भैरव बाबा की जागृत प्रतिमा है जो मदिरा पान करती है I
भैरव बाबा को
सात्विक भोग में
हलवा , खीर , गुलगुले ( मीठे
पुए ) , जलेबी अत्याधिक पसंद
हैं मिठाइयों का
भोग भैरव बाबा
को लगाकर काले
कुत्ते को खिलाना
चाहिए और काली
उड़द की दाल
से बने दही
भल्ले , पकोड़े आदि का
भोग भैरव बाबा
को लगाकर किसी
गरीब को खिलाना
चाहिए I भैरव उग्र
कापालिक सम्प्रदाय के देवता
हैं और तंत्रशास्त्र
में उनकी आराधना
को ही प्राधान्य
प्राप्त है। तंत्र
साधक का मुख्य
भैरव भाव से
अपने को आत्मसात
करना होता है।
कोलतार से भी
गहरा काला रंग,
विशाल प्रलंब, स्थूल
शरीर, अंगारकाय त्रिनेत्र,
काले डरावने चोगेनुमा
वस्त्र, रूद्राक्ष की कण्ठमाला,
हाथों में लोहे
का भयानक दण्ड
, डमरू त्रिशूल और तलवार,
गले में नाग
, ब्रह्मा का पांचवां
सिर , चंवर और
काले कुत्ते की
सवारी - यह है
भैरव के रूप
की कल्पना।
प्राचीन ग्रंथों में भैरव
‘शिवपुराण’ के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान्ह में भगवान शिव के रुधिर (रक्त) से भैरव की उत्पत्ति हुई थी, अतः इस तिथि को भैरवाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य अपने कृत्यों से अनीति व अत्याचार की सीमाएं पार कर रहा था, यहाँ तक कि एक बार घमंड में चूर होकर वह भगवान शिव तक के ऊपर आक्रमण करने का दुस्साहस कर बैठा. तब उसके संहार के लिए शिव के रुधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई।
भारत में भैरव के प्रसिद्ध मंदिर
भारत में भैरव
के प्रसिद्ध मंदिर
हैं जिनमें काशी
का काल भैरव
मंदिर सर्वप्रमुख माना
जाता है। काशी
विश्वनाथ मंदिर से भैरव
मंदिर कोई डेढ़-दो किलोमीटर
की दूरी पर
स्थित है। दूसरा
नई दिल्ली के
विनय मार्ग पर
नेहरू पार्क में
बटुक भैरव का
पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध
है। तीसरा उज्जैन
के काल भैरव
की प्रसिद्धि का
कारण भी ऐतिहासिक
और तांत्रिक है।
नैनीताल के समीप
घोड़ाखाल का बटुकभैरव
मंदिर भी अत्यंत
प्रसिद्ध है। यहाँ
गोलू देवता के
नाम से भैरव
की प्रसिद्धि है।
उत्तराखंड चमोली जिला के
सिरण गाँव में
भी भैरव गुफा
काफी प्राचीन है।
इसके अलावा शक्तिपीठों
और उपपीठों के
पास स्थित भैरव
मंदिरों का महत्व
माना गया है।
जयगढ़ के प्रसिद्ध
किले में काल-भैरव का
बड़ा प्राचीन मंदिर
है जिसमें भूतपूर्व
महाराजा जयपुर के ट्रस्ट
की और से
दैनिक पूजा-अर्चना
के लिए पारंपरिक-पुजारी नियुक्त हैं।
।
जयपुर जिले के
चाकसू कस्बे मे
भी प्रसिद बटुक
भैरव मंदिर हे
जो लगभग आठवी
शताब्दी का बना
हुआ हे मान्यता
हे की जब
तक कस्बे के
लोग बारिश ऋतु
से पहले बटुक
भैरव की पूजा
नहीं करते तब
तक कस्बे मे
बारिश नहीं आती
। नाथद्वारा के
पास ही शिशोदा
गाव में भैरुनाथ
का प्रसिद्ध मन्दिर
है जो सन
1400 ईसा पूर्व का है।
मध्य प्रदेश के सिवनी
जिले के ग्राम
अदेगाव में भी
श्री काल भैरव
का मंदिर है
जो किले के
अंदर है जिसे
गढ़ी ऊपर के
नाम से जाना
जाता है
कहते हैं औरंगजेब
के शासन काल
में जब काशी
के भारत-विख्यात
विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस
किया गया, तब
भी कालभैरव का
मंदिर पूरी तरह
अछूता बना रहा
था। जनश्रुतियों के
अनुसार कालभैरव का मंदिर
तोड़ने के लिये
जब औरंगज़ेब के
सैनिक वहाँ पहुँचे
तो अचानक पागल
कुत्तों का एक
पूरा समूह कहीं
से निकल पड़ा
था। उन कुत्तों
ने जिन सैनिकों
को काटा वे
तुरंत पागल हो
गये और फिर
स्वयं अपने ही
साथियों को उन्होंने
काटना शुरू कर
दिया। बादशाह को
भी अपनी जान
बचा कर भागने
के लिये विवश
हो जाना पड़ा।
उसने अपने अंगरक्षकों
द्वारा अपने ही
सैनिक सिर्फ इसलिये
मरवा दिये किं
पागल होते सैनिकों
का सिलसिला कहीं
खु़द उसके पास
तक न पहुँच
जाए।



No comments:
Post a Comment