वेद
वेद, प्राचीन भारत वर्ष के पवित्र साहित्य हैं जो धरती के प्राचीनतम सनातन हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं । वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन एवं वर्णाश्रम धर्म के मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है जानना,अतः वेद का शाब्दिक अर्थ है 'ज्ञान' । इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। इन्हें देववाणी के रूप में माना गया है| इसीलिए ये ' श्रुति' कहलाते हैं| वेदों को परम सत्य माना गया है| उनमें लौकिक अलौकिक सभी विषयों का ज्ञान भरा पड़ा है| प्रत्येक वेद के चार अंग हैं| वे हैं वेदसंहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक तथा उपनिषद्|
आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार हैं :-
ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या १०४६२,मंडल की संख्या १० तथा सूक्त की संख्या १०२८ है। ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की कुल संख्या ४३२००० है। इसका मूल विषय ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि।
यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये १९७५ गद्यात्मक मन्त्र हैं।
सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में लगे सुर को गाने के लिये १८७५ संगीतमय मंत्र।
अथर्ववेद
- इसमें गुण, धर्म,
आरोग्य, एवं यज्ञ
के लिये ५९७७
कवितामयी मन्त्र हैं।
चारों वेदों का सम्बन्ध यज्ञ से है| यज्ञ करने में चार प्रकार के ऋत्विजों की आवश्यकता होती है| यथा- • होता • उद्गाता •अध्वर्यु • ब्रह्मा | को अपौरुषेय (जिसे किसी पुरुष के द्वारा न किया जा सकता हो, (अर्थात् ईश्वर कृत) माना जाता है। यह ज्ञान विराटपुरुष से वा कारणब्रह्म से श्रुति परम्परा के माध्यम से सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्राप्त किया माना जाता है। यह भी मान्यता है कि परमात्मा ने सबसे पहले चार महर्षियों जिनके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम थे; के आत्माओं में क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया, उन महर्षियों ने फिर यह ज्ञान ब्रह्मा को दिया। इन्हें श्रुति भी कहते हैं जिसका अर्थ है 'सुना हुआ ज्ञान'। क्योंकि इन्हें सुनकर के लिखा गया था। अन्य आर्य ग्रंथों को स्मृति कहते हैं, अर्थात वेदज्ञ मनुष्यों की वेदानुगत बुद्धि या स्मृति पर आधारित ग्रन्थ। वेद मंत्रों की व्याख्या करने के लिए अनेक ग्रंथों जैसे ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद की रचना की गई। इनमे प्रयुक्त भाषा वैदिक संस्कृत कहलाती है जो लौकिक संस्कृत से कुछ अलग है। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्द-आर्य जाति के बारे में वेदों को एक अच्छा सन्दर्भ स्रोत माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्त्व बना हुआ है।
वेदों को समझना
प्राचीन काल से
ही पहले भारतीय
और बाद में
संपूर्ण विश्व भर में
एक वार्ता का
विषय रहा है।
इसको पढ़ाने के
लिए छः अंगों
- शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण,
छन्द और ज्योतिष
के अध्ययन और
उपांगों जिनमें छः शास्त्र
- पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग,
सांख्य और वेदांत
व दस उपनिषद्
- इशावास्य, केन, कठ,
प्रश्न, मुण्डक, मांडुक्य, ऐतरेय,
तैतिरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक
आते हैं। प्राचीन
समय में इनको
पढ़ने के बाद
वेदों को पढ़ा
जाता था। प्राचीन
काल के वशिष्ठ,
शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी,
याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों
को वेदों के
अच्छे ज्ञाता माना
जाता है। मध्यकाल
में रचित व्याख्याओं
में सायण का
रचा चतुर्वेदभाष्य माधवीय
वेदार्थदीपिका बहुत मान्य
हैं। यूरोप के
विद्वानों का वेदों
के बारे में
मत हिन्द-आर्य
जाति के इतिहास
की जिज्ञासा से
प्रेरित रही है।
अतः वे इसमें
लोगों, जगहों, पहाड़ों, नदियों
के नाम ढूँढते
रहते हैं - लेकिन
ये भारतीय परंपरा
और गुरुओं की
शिक्षाओं से मेल
नहीं खाता। अठारहवीं
सदी उपरांत यूरोपियनों
के वेदों और
उपनिषदों में रूचि
आने के बाद
भी इनके अर्थों
पर कई विद्वानों
में असहमति बनी
रही है। वेदों
में अनेक वैज्ञानिक
विश्लेषण प्राप्त होते हैं।
कालक्रम
वेद सबसे प्राचीन पवित्र ग्रंथों में से हैं। संहिता की तारीख लगभग 1700-1100 ईसा पूर्व, और "वेदांग" ग्रंथों के साथ-साथ संहिताओं की प्रतिदेयता कुछ विद्वान वैदिक काल की अवधि 1500-600 ईसा पूर्व मानते हैं तो कुछ इससे भी अधिक प्राचीन मानते हैं। जिसके परिणामस्वरूप एक वैदिक अवधि होती है, जो 1000 ईसा पूर्व से लेकर 200 ई.पूर्व तक है। कुछ विद्वान इन्हे ताम्र पाषाण काल (4000 ईसा पूर्व) का मानते हैं। वेदों के बारे में यह मान्यता भी प्रचलित है कि वेद सृष्टि के आरंभ से हैं और परमात्मा द्वारा मानव मात्र के कल्याण के लिए दिए गए हैं। वेदों में किसी भी मत, पंथ या सम्प्रदाय का उल्लेख न होना यह दर्शाता है कि वेद विश्व में सर्वाधिक प्राचीनतम साहित्य है। वेदों की प्रकृति विज्ञानवादी होने के कारण पश्चिमी जगत में इनका डंका बज रहा है। वैदिक काल, वेद ग्रंथों की रचना के बाद ही अपने चरम पर पहुंचता है, संपूर्ण उत्तर भारत में विभिन्न शाखाओं की स्थापना के साथ, जो कि ब्राह्मण ग्रंथों के अर्थों के साथ मंत्र संहिताओं को उनके अर्थ की चर्चा करता है, बुद्ध और पाणिनी के काल में भी वेदों का बहुत अध्ययन-अध्यापन का प्रचार था यह भी प्रमाणित है। माइकल विटजेल भी एक समय अवधि देता है 1500 से 500-400 ईसा पूर्व, माइकल विटजेल ने 1400 ईसा पूर्व माना है, उन्होंने विशेष संदर्भ में ऋग्वेद की अवधि के लिए इंडो-आर्यन समकालीन का एकमात्र शिलालेख दिया था। उन्होंने 150 ईसा पूर्व (पतंजलि) को सभी वैदिक संस्कृत साहित्य के लिए एक टर्मिनस एंटी क्वीन के रूप में, और 1200 ईसा पूर्व (प्रारंभिक आयरन आयु) अथर्ववेद के लिए टर्मिनस पोस्ट क्वीन के रूप में दिया। मैक्समूलर ऋग्वेद का रचनाकाल 1200 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के काल के मध्य मानता है। दयानन्द सरस्वती चारों वेदों का काल 1960852976 वर्ष हो चुके हैं यह (1876 ईसवी में) मानते है।
वैदिक काल में ग्रंथों का संचरण मौखिक परंपरा द्वारा किया गया था, विस्तृत नैमनिक तकनीकों की सहायता से परिशुद्धता से संरक्षित किया गया था। मौर्य काल (322-185 ई० पू०) में बौद्ध धर्म (600 ई० पू०) के उदय के बाद वैदिक समय के बाद साहित्यिक परंपरा का पता लगाया जा सकता है। इसी काल में गृहसूत्र, धर्मसूत्र और वेदांगों की रचना हुई, ऐसा विद्वानों का मत है। इसी काल में संस्कृत व्याकरण पर पाणिनी ने 'अष्टाध्यायी' नामक ग्रंथ लिखा। अन्य दो व्याकरणाचार्य कात्यायन और पतञ्जलि उत्तर मौर्य काल में हुए। चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा। शायद 1 शताब्दी ईसा पूर्व के यजुर्वेद के कन्वा पाठ में सबसे पहले; हालांकि संचरण की मौखिक परंपरा सक्रिय रही। माइकल विटजेल ने 1 सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में लिखित वैदिक ग्रंथों की संभावना का सुझाव दिया। कुछ विद्वान जैसे जैक गूडी कहते हैं कि "वेद एक मौखिक समाज के उत्पाद नहीं हैं", इस दृष्टिकोण को ग्रीक, सर्बिया और अन्य संस्कृतियों जैसे विभिन्न मौखिक समाजों से साहित्य के संचरित संस्करणों में विसंगतियों की तुलना करके इस दृष्टिकोण का आधार रखते हुए, उस पर ध्यान देते हुए वैदिक साहित्य बहुत सुसंगत और विशाल है जिसे लिखे बिना, पीढ़ियों में मौखिक रूप से बना दिया गया था। हालांकि जैक गूडी कहते हैं, वैदिक ग्रंथों कि एक लिखित और मौखिक परंपरा दोनों में शामिल होने की संभावना है, इसे "साक्षरता समाज के समानांतर उत्पाद" कहते हैं।
वैदिक काल में
पुस्तकों को ताड़
के पेड़ के
पत्तों पर लिखा
जाता था। पांडुलिपि
सामग्री (बर्च की
छाल या ताड़
के पत्तों) की
तात्कालिक प्रकृति के कारण,
जीवित पांडुलिपियां शायद
ही कुछ सौ
वर्षों की उम्र
को पार करती
हैं। सम्पूर्णानन्द संस्कृत
विश्वविद्यालय का 14 वीं शताब्दी
से ऋग्वेद पांडुलिपि
है; हालांकि, नेपाल
में कई पुरानी
वेद पांडुलिपियां हैं
जो 11 वीं शताब्दी
के बाद से
हैं।
वेद-भाष्यकार
प्राचीन काल में माना जाता है कि ब्रह्मा , विष्णु , महेश (शिव), ने ही सारे संसार का संचालन किया है और सारे देवता उसमें सहायक होते हैं। भगवान शिव ने सात ऋषियों को वेद ज्ञान दिया। इसका उल्लेख गीता में हुआ है। ऐतिहासिक रूप से ब्रह्मा, उनके मरीचि, अत्रि आदि सात और पौत्र कश्यप और अन्य यथा जैमिनी, पतंजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल, कणाद आदि मुनियों को वेदों का अच्छा ज्ञान था। व्यास ऋषि ने गीता में कई बार वेदों (श्रुति ग्रंथों) का ज़िक्र किया है। अध्याय 2 में कृष्ण, अर्जुन से ये कहते हैं कि वेदों की अलंकारमयी भाषा के बदले उनके वचन आसान लगेंगे।[1]
मध्यकाल में सायण आचार्य को वेदों का प्रसिद्ध भाष्यकार मानते हैं - लेकिन साथ ही यह भी मानते हैं कि उन्होंने ही प्रथम बार वेदों के भाष्य या अनुवाद में देवी-देवता, इतिहास और कथाओं का उल्लेख किया जिसको आधार मानकार महीधर और अन्य भाष्यकारों ने ऐसी व्याख्या की। महीधर और उव्वट इसी श्रेणी के भाष्यकार थे।
आधुनिक काल में
राजा राममोहन राय
का ब्रह्म समाज
और दयानन्द सरस्वती
का आर्य समाज
लगभग एक ही
समय (1800-1900 ईसवी) में वेदों
के सबसे बड़े
प्रचारक बने। दयानन्द
सरस्वती ने यजुर्वेद
और ऋग्वेद का
लगभग सातवें मंडल
के कुछ भाग
तक भाष्य किया।
सामवेद और अथर्ववेद
का भाष्य पं०
हरिशरण सिद्धान्तलंकार ने किया
है। वैदिक संहिताओं
के अनुवाद में
रमेशचंद्र दत्त बंगाल
से, रामगोविन्द त्रिवेदी
एवं जयदेव वेदालंकार
के हिन्दी में
एवं श्रीधर पाठक
का मराठी में
कार्य भी लोगों
को वेदों के
बारे में जानकारी
प्रदान करता रहा
है। इसके बाद
गायत्री तपोभूमि के श्रीराम
शर्मा आचार्य ने
भी वेदों के
भाष्य प्रकाशित किये
हैं - इनके भाष्य
सायणाधारित हैं। अन्य
भी वेदों के
अनेक भाष्यकार हैं।
वेदों का प्रकाशन
वेदों का प्रकाशन
शंकर पाण्डुरंग ने
सायण भाष्य के
अलावा अथर्ववेद का
चार खण्ड में
प्रकाशन किया। लोकमान्य तिलक
ने ओरायन और
द आर्कटिक होम
इन वेदाज़ नामक
दो ग्रंथ वैदिक
साहित्य की समीक्षा
के रूप में
लिखे। बालकृष्ण दीक्षित
ने सन् 1877 ई०
में कोलकाता से
सामवेद पर अपने
ज्ञान का प्रकाशन
कराया। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर
ने सातारा में
चारों वेदों की
संहिता का श्रमपूर्वक
प्रकाशन कराया। तिलक विद्यापीठ,
पुणे से पाँच
जिल्दों में प्रकाशित
ऋग्वेद के सायण
भाष्य के प्रकाशन
को भी प्रामाणिक
माना जाता है।
विदेशी प्रयास
सत्रहवीं सदी में
मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब
के भाई दारा
शूकोह ने कुछ
उपनिषदों का फ़ारसी
में अनुवाद किया
(सिर्र ए अकबर,سرّ اکبر महान
रहस्य) जो पहले
फ्रांसिसी और बाद
में अन्य भाषाओं
में अनूदित हुईं।
यूरोप में इसके
बाद वैदिक और
संस्कृत साहित्य की ओर
ध्यान गया। मैक्स
मूलर जैसे यूरोपीय
विद्वान ने भी
संस्कृत और वैदिक
साहित्य पर बहुत
अध्ययन किया है।
लेकिन यूरोप के
विद्वानों का ध्यान
हिन्द आर्य भाषा
परिवार के सिद्धांत
को बनाने और
उसको सिद्ध करने
में ही लगा
हुआ है। शब्दों
की समानता को
लेकर बने इस
सिद्धांत में ऐतिहासिक
तथ्यों और काल
निर्धारण को तोड़-मरोड़ करना ही
पड़ता है। इस
कारण से वेदों
की रचना का
समय १८००-१०००
ईसा पूर्व माना
जाता है जो
संस्कृत साहित्य और हिन्दू
सिद्धांतों पर खरा
नहीं उतरता। लेकिन
आर्य जातियों के
प्रयाण के सिद्धांत
के तहत और
भाषागत दृष्टि से यही
काल इन ग्रंथों
की रचना का
मान लिया जाता
है।
वेदों का काल
वेदों का अवतरण काल वर्तमान सृष्टि के आरंभ के समय का माना जाता है। इसके हिसाब से वेद को अवतरित हुए 2017 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत 2074) को 1,96,08,53,117 वर्ष होंगे। वेद अवतरण के पश्चात् श्रुति के रूप में रहे और काफी बाद में वेदों को लिपिबद्ध किया गया और वेदों को संरक्षित करने अथवा अच्छी तरह से समझने के लिये
वेदों से ही वेदांगों का आविष्कार किया गया। इसमें उपस्थित खगोलीय विवरणानुसार कई इतिहासकार इसे ५००० से ७००० साल पुराना मानते हैं परंतु आत्मचिंतन से ज्ञात होता है कि जैसे सात दिन बीत जाने पर पुनः रविवार आता है वैसे ही ये खगोलीय घटनाएं बार बार होतीं हैं अतः इनके आधार पर गणना श्रेयसकर नहीं।
वेद हमें ब्रह्मांड
के अनोखे, अलौकिक
व ब्रह्मांड के
अनंत राज बताते
हैं जो साधारण
समझ से परे
हैं। वेद की
पुरातन नीतियां व ज्ञान
इस दुनिया को
न केवल समझाते
हैं अपितु इसके
अलावा वे इस
दुनियां को पुनः
सुचारू तरीके से चलाने
में मददगार साबित
हो सकते हैं।
वेदों का महत्व
प्राचीन काल से भारत में वेदों के अध्ययन और व्याख्या की परम्परा रही है। वैदिक सनातन वर्णाश्रम (हिन्दू) धर्म के अनुसार वैदिक काल में ब्रह्मा से लेकर वेदव्यास तथा जैमिनि तक के ऋषि-मुनियों और दार्शनिकों ने शब्द, प्रमाण के रूप में इन्हीं को माना है और इनके आधार पर अपने ग्रन्थों का निर्माण भी किया है। पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास, पाणिनी आदि को प्राचीन काल के वेदवेत्ता कहते हैं। वेदों के विदित होने यानि चार ऋषियों के ध्यान में आने के बाद इनकी व्याख्या करने की परम्परा रही है [3]। अतः फलस्वरूप एक ही वेद का स्वरुप भी मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् के रुप में चार ही माना गया है। इतिहास (महाभारत), पुराण आदि महान् ग्रन्थ वेदों का व्याख्यान के स्वरूप में रचे गए। प्राचीन काल और मध्ययुग में शास्त्रार्थ इसी व्याख्या और अर्थांतर के कारण हुए हैं। मुख्य विषय - देव, अग्नि, रूद्र, विष्णु, मरुत, सरस्वती इत्यादि जैसे शब्दों को लेकर हुए। वेदवेत्ता महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान वेदों के विषय हैं। जीव, ईश्वर, प्रकृति इन तीन अनादि नित्य सत्ताओं का निज स्वरूप का ज्ञान केवल वेद से ही उपलब्ध होता है। वेद में मूर्ति पूजा को अमान्य कहा गया है
कणाद ने "तद्वचनादाम्नायस्य प्राणाण्यम्"[4] और "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" कहकर वेद को दर्शन और विज्ञान का भी स्रोत माना है। हिन्दू धर्म अनुसार सबसे प्राचीन नियम विधाता महर्षि मनु ने कहा वेदोऽखिलो धर्ममूलम् - खिलरहित वेद अर्थात् समग्र संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद के रूप में वेद ही धर्म व धर्मशास्त्र का मूल आधार है। न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता को जानने का वेद ही तो एकमात्र साधन है। मानव-जाति और विशेषतः वैदिकों ने अपने शैशव
में धर्म और
समाज का किस
प्रकार विकास किया इसका
ज्ञान केवल वेदों
से मिलता है।
विश्व के वाङ्मय
में इनको प्राचीनतम
ग्रन्थ (पुस्तक) माना जाता
है।
वर्गीकरण का इतिहास
द्वापरयुग की समाप्ति
के समय श्रीकृष्णद्वैपायन
वेदव्यास जी ने
यज्ञानुष्ठान के उपयोग
को दृष्टिगत रखकर
उस एक वेद
के चार विभाग
कर दिये और
इन चारों विभागों
की शिक्षा चार
शिष्यों को दी।
ये ही चार
विभाग ऋग्वेद, यजुर्वेद,
सामवेद और अथर्ववेद
के नाम से
प्रसिद्ध है। पिप्लाद,
वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु
नामक -चार शिष्यों
को क्रमशः ऋग्वेद,
यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद
की शिक्षा दी।
इन चार शिष्यों
ने शाकल आदि
अपने भिन्न-भिन्न
शिष्यों को पढ़ाया।
इन शिष्यों के
द्वारा अपने-अपने
अधीन वेदों के
प्रचार व संरक्षण
के कारण वे
वैदिक ग्रन्थ, चरण,
शाखा, प्रतिशाखा और
अनुशाखा के माध्यम
से अनेक रूपों
में विस्तारित हो
गये व उन्हीं
प्रचारक ऋषियों के नाम
से प्रसिद्ध हैं।
लेकिन अनेक विद्वानों
का मानना है
कि वेद आरंभ
से ही चार
हैं।
वेदों के विषय
वैदिक ऋषियौ ने वेदों
को जनकल्याणमे प्रवृत्त
पाया। निस्संदेह जैसा
कि -:यथेमां वाचं
कल्याणिमावदानि जनेभ्यः वैसा ही
वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ता
कालानुपूर्व्याभिहिताश्च यज्ञाः तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं
यो ज्योतिषं वेद
स वेद यज्ञम्
वेदौं की प्रवृत्तिः
जनकल्यण के कार्य
मे है। वेद
शब्द विद् धातु
में घं प्रत्यय
लगने से बना
है। संस्कृत ग्रथों
में विद् ज्ञाने
और विद्
लाभे जैसे विशेषणों
से विद् धातु
से ज्ञान और
लाभ के अर्थ
का बोध होता
है।
वेदों के विषय
उनकी व्याख्या पर
निर्भर करते हैं
- अग्नि, यज्ञ, सूर्य, इंद्र
(आत्मा तथा बिजली
के अर्थ में),
सोम, ब्रह्म, मन-आत्मा, जगत्-उत्पत्ति,
पदार्थों के गुण,
धर्म (उचित-अनुचित),
दाम्पत्य, ध्यान-योग, प्राण
(श्वास की शक्ति)
जैसे विषय इसमें
बारंबार आते हैं।
यज्ञ में देवता,
द्रव्य, उद्देश्य,और विधि
आदि विनियुक्त होते
हैं। ग्रंथों के
हिसाब से इनका
विवरण इस प्रकार
है -
ऋग्वेद
ऋग्वेद को चारों
वेदों में सबसे
प्राचीन माना जाता
है। इसको दो
प्रकार से बाँटा
गया है। प्रथम
प्रकार में इसे
10 मण्डलों में विभाजित
किया गया है।
मण्डलों को सूक्तों
में, सूक्त में
कुछ ऋचाएं होती
हैं। कुल ऋचाएं
10647 हैं। दूसरे प्रकार से
ऋग्वेद में 64 अध्याय हैं।
आठ-आठ अध्यायों
को मिलाकर एक
अष्टक बनाया गया
है। ऐसे कुल
आठ अष्टक हैं।
फिर प्रत्येक अध्याय
को वर्गों में
विभाजित किया गया
है। वर्गों की
संख्या भिन्न-भिन्न अध्यायों
में भिन्न भिन्न
ही है। कुल
वर्ग संख्या 2024 है।
प्रत्येक वर्ग में
कुछ मंत्र होते
हैं। सृष्टि के
अनेक रहस्यों का
इनमें उद्घाटन किया
गया है। पहले
इसकी 21 शाखाएं थीं परन्तु
वर्तमान में इसकी
निकल शाखा का
ही प्रचार है।
यजुर्वेद
इसमें गद्य और
पद्य दोनों ही
हैं। इसमें यज्ञ
कर्म की प्रधानता
है। प्राचीन काल
में इसकी 101 शाखाएं
थीं परन्तु वर्तमान
में केवल पांच
शाखाएं हैं - काठक, कपिष्ठल,
मैत्रायणी, तैत्तिरीय, वाजसनेयी। इस
वेद के दो
भेद हैं - कृष्ण
यजुर्वेद और शुक्ल
यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद का
संकलन महर्षि वेद
व्यास ने किया
है। इसका दूसरा
नाम तैत्तिरीय संहिता
भी है। इसमें
मंत्र और ब्राह्मण
भाग मिश्रित हैं।
शुक्ल यजुर्वेद - इसे
सूर्य ने याज्ञवल्क्य
को उपदेश के
रूप में दिया
था। इसमें 15 शाखाएं
थीं परन्तु वर्तमान
में माध्यन्दिन को
जिसे वाजसनेयी भी
कहते हैं प्राप्त
हैं। इसमें 40 अध्याय,
303 अनुवाक एवं 1975 मंत्र हैं।
अन्तिम चालीसवां अध्याय ईशावास्योपनिषद
है।
सामवेद
यह गेय ग्रन्थ
है। इसमें गान
विद्या का भण्डार
है, यह भारतीय
संगीत का मूल
है। ऋचाओं के
गायन को ही
साम कहते हैं।
इसकी 1001 शाखाएं थीं। परन्तु
आजकल तीन ही
प्रचलित हैं - कोथुमीय, जैमिनीय
और राणायनीय। इसको
पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक
में बांटा गया
है। पूर्वार्चिक में
चार काण्ड हैं
- आग्नेय काण्ड, ऐन्द्र काण्ड,
पवमान काण्ड और
आरण्य काण्ड। चारों
काण्डों में कुल
640 मंत्र हैं। फिर
महानाम्न्यार्चिक के 10 मंत्र हैं।
इस प्रकार पूर्वार्चिक
में कुल 650 मंत्र
हैं। छः प्रपाठक
हैं। उत्तरार्चिक को
21 अध्यायों में बांटा
गया। नौ प्रपाठक
हैं। इसमें कुल
1225 मंत्र हैं। इस
प्रकार सामवेद में कुल
1875 मंत्र हैं। इसमें
अधिकतर मंत्र ऋग्वेद से
लिए गए हैं।
इसे उपासना का
प्रवर्तक भी कहा
जा सकता है।
अथर्ववेद
इसमें गणित, विज्ञान, आयुर्वेद,
समाज शास्त्र, कृषि
विज्ञान, आदि अनेक
विषय वर्णित हैं।
कुछ लोग इसमें
मंत्र-तंत्र भी
खोजते हैं। यह
वेद जहां ब्रह्म
ज्ञान का उपदेश
करता है, वहीं
मोक्ष का उपाय
भी बताता है।
इसे ब्रह्म वेद
भी कहते हैं।
इसमें मुख्य रूप
में अथर्वण और
आंगिरस ऋषियों के मंत्र
होने के कारण
अथर्व आंगिरस भी
कहते हैं। यह
20 काण्डों में विभक्त
है। प्रत्येक काण्ड
में कई-कई
सूत्र हैं और
सूत्रों में मंत्र
हैं। इस वेद
में कुल 5977 मंत्र
हैं। इसकी आजकल
दो शाखाएं शौणिक
एवं पिप्पलाद ही
उपलब्ध हैं। अथर्ववेद
का विद्वान् चारों
वेदों का ज्ञाता
होता है। यज्ञ
में ऋग्वेद का
होता देवों का
आह्नान करता है,
सामवेद का उद्गाता
सामगान करता है,
यजुर्वेद का अध्वर्यु
देव:कोटीकर्म का
वितान करता है
तथा अथर्ववेद का
ब्रह्म पूरे यज्ञ
कर्म पर नियंत्रण
रखता है।
अन्य मतों की दृष्टि में वेद
जैसा कि उपर
लिखा है, वेदों
के कई शब्दों
का समझना उतना
सरल नहीं रहा
है। वेदों का
वास्तविक अर्थ समझने
के लिए इनके
भितर से ही
वेदांङ्गो का निर्माण
किया गया | इसकी
वजह इनमें वर्णित
अर्थों को जाना
नही जा सकता
| सबसे अधिक विवाद-वार्ता ईश्वर के
स्वरूप, यानि एकमात्र
या अनेक देवों
के सदृश्य को
लेकर हुआ है।
वेदों के वास्तविक
अर्थ वही कर
सकता है जो
वेदांग- शिक्षा,कल्प, व्याकरण,
निरुक्त,छन्द और
ज्योतिष का ज्ञाता
है। यूरोप के
संस्कृत विद्वानों की व्याख्या
भी हिन्द-आर्य
जाति के सिद्धांत
से प्रेरित रही
है। प्राचीन काल
में ही इनकी
सत्ता को चुनौती
देकर कई ऐसे
मत प्रकट हुए
जो आज भी
धार्मिक मत कहलाते
हैं लेकिन कई
रूपों में भिन्न
हैं। इनका मुख्य
अन्तर नीचे स्पष्ट
किया गया है।
उनमे से जिसका
अपना अविच्छिन्न परम्परा
से वेद,शाखा,और कल्पसूत्रों
से निर्देशित होकर
एक अद्वितीय ब्रह्मतत्वको
ईश्वर मानकर किसी
एक देववाद मे
न उलझकर वेदवाद
में रमण करते
हैं वे वैदिक
सनातन वर्णाश्रम धर्म
मननेवाले है वे
ही वेदों को
सर्वोपरि मानते है। इसके
अलावा अलग अलग
विचार रखनेवाले और
पृथक् पृथक् देवता
मानने वाले कुछ
सम्प्रदाय ये हैं-:
जैन - इनको मूर्ति
पूजा के प्रवर्तक
माना जाता है।
ये वेदों को
श्रेष्ठ नहीं मानते
पर अहिंसा के
मार्ग पर ज़ोर
देते हैं।
बौद्ध - इस मत
में महात्मा बुद्ध
के प्रवर्तित ध्यान
और तृष्णा को
दुःखों का कारण
बताया है। वेदों
में लिखे ध्यान
के महत्व को
ये तो मानते
हैं पर ईश्वर
की सत्ता से
नास्तिक हैं। ये
भी वेद नही
मानते |
शैव - वेदों में
वर्णित रूद्र के रूप
शिव को सर्वोपरि
समझने वाले। अपनेको
वैदिक धर्म के
मानने वाले शिव
को एकमात्र ईश्वर
का कल्याणकारी रूप
मानते हैं, लेकिन
शैव लोग शंकर
देव के रूप
(जिसमें नंदी बैल,
जटा, बाघंबर इत्यादि
हैं) को विश्व
का कर्ता मानते
हैं।
वैष्णव - विष्णु और उनके
अवतारों को ईश्वर
मानने वाले। वैदिक
ग्रन्थौं से अधिक
अपना आगम मत
को सर्वोपरी मानते
है। विष्णु को
ही एक ईश्वर
बताते हैं और
जिसके अनुसार सर्वत्र
फैला हुआ ईश्वर
विष्णु कहलाता है।
शाक्त अपने को वेदोक्त मानते
तो है लेकिन्
पूर्वोक्त शैव,वैष्णवसे
श्रेष्ठ समझते है, महाकाली,महालक्ष्मी और महासरस्वतीके
रुपमे नवकोटी दुर्गाको
इष्टदेवता मानते है वे
ही सृष्टिकारिणी है
ऐसा मानते है।
सौर जगतसाक्षी सूर्य को
और उनके विभिन्न
अवतारों को ईश्वर
मानते हैं। वे
स्थावर और जंगमके
आत्मा सूर्य ही
है ऐसा मानते
है।
गाणपत्य गणेश को
ईश्वर समझते है।
साक्षात् शिवादि देवों ने
भी उनकी उपासना
करके सिद्धि प्राप्त
किया है, ऐसा
मानते हैं।
सिख - इनका विश्वास
एकमात्र ईश्वर में तो
है, लेकिन वेदों
को ईश्वर की
वाणी नहीं समझते
हैं।
आर्य समाज - ये निराकार
ईश्वर के उपासक
हैं। ये वेद
को ईश्वरीय ज्ञान
मानते हैं। ये
मानते हैं कि
वेद आदि सृष्टि
में अग्नि, वायु,
आदित्य तथा अङ्गिरा
आदि ऋषियों के
अन्तस् में उत्पन्न
हुआ। वेदों को
अंतिम प्रमाण स्वीकार
करते हैं। और
वेदों के अनन्तर
जिन पुराण आदि
की रचना हुई
इनको वेद विरुद्ध
मानते हुए अस्वीकार
करते हैं। रामायण
तथा महाभारत के
इतिहास को स्वीकार
करते हैं। इस
समाज के संस्थापक
महर्षि दयानन्द हैं जिन्होंने
वेदों की ओर
लौटने का संदेश
दिया। ये अर्वाचीन
वैदिक है।
यज्ञ:
यज्ञ के वर्तमान
रूप के महत्व
को लेकर कई
विद्वानों, मतों और
भाष्कारों में विरोधाभाष
है। यज्ञ में
आग के प्रयोग
को प्राचीन पारसी
पूजन विधि के
इतना समान होना
और हवन की
अत्यधिक महत्ता के प्रति
विद्वानों में रूचि
रही है।
देवता:
देव शब्द का
लेकर ही कई
विद्वानों में असहमति
रही है। वेदोक्त
निर्गुण- निराकार और सगुण-
साकार मे से
अन्तिम पक्षको मानने वाले
कई मतों में
(जैसे- शैव, वैष्णव
और शाक्त सौर
गाणपत,कौमार) इसे
महामनुष्य के रूप
में विशिष्ट शक्ति
प्राप्त साकार चरित्र समझते
हैं और उनका
मूर्ति रूप में
पूजन करते हैं
तो अन्य कई
इन्हें ईश्वर (ब्रह्म, सत्य)
के ही नाम
बताते हैं। परोपकार
(भला) करने वाली
वस्तुएँ (यथा नदी,
सूर्य), विद्वान लोग और
मार्गदर्शन करने वाले
मंत्रों को देव
कहा गया है।
उदाहरणार्थ
अग्नि शब्द का
अर्थ आग न
समझकर सबसे आगे
यानि प्रथम यानि
परमेश्वर समझते हैं। देवता
शव्द का अर्थ
दिव्य, यानि परमेश्वर
(निराकार, ब्रह्म) की शक्ति
से पूर्ण माना
जाता है - जैसे
पृथ्वी आदि। इसी
मत में महादेव,
देवों के अधिपति
होने के कारण
ईश्वर को कहते
हैं। इसी तरह
सर्वत्र व्यापक ईश्वर विष्णु
और सत्य होने
के कारण ब्रह्मा
कहलाता है। इस
प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और
महादेव किसी चरित्र
के नाम नहीं
बल्कि ईश्वर के
ही नाम है।
व्याकरण और निरुक्तके
वलपर ही वैदिक
और लौकिक शब्दौंके
अर्थ निर्धारण कीया
जाता है। इसके
अभावमे अर्थके अनर्थ कर
बैठते है। [8] इसी
प्राकर गणेश (गणपति), प्रजापति,
देवी, बुद्ध, लक्ष्मी
इत्यादि परमेश्वर के ही
नाम हैं। वेदादि
शास्त्रौंमे आए विभन्न
एक ही परमेश्वरके
है। जैसा की
उपनिषदौंमे कहा गया
है- एको देव
सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी
सर्वभूतान्तरात्मा | कुछ लोग
ईश्वरके सगुण- निर्गुण स्वरुपमे
झगडते रहते है।
इनमेसे कोई मूर्तिपूजा
करते है और
कोई ऐसे लोग
है जो मूर्तिपूजा
के विरूद्ध हैं
और ईश्वर को
एकमात्र सत्य, सर्वोपरि समझते
हैं।
अश्वमेध:
राजा द्वारा न्यायपूर्वक
अपनी प्रजा का
पालन करना अश्वमेध
यज्ञ कहलाता है।
अनेक विद्वानों का
मानना है कि
मेध शब्द में
अध्वरं का भी
प्रयोग हुआ है
जिसका अर्थ है
अहिंसा। अतः मेध
का भी अर्थ
कुछ और रहा
होगा। इसी प्रकार
अश्व शब्द का
अर्थ घोड़ा न
रहकर शक्ति रहा
होगा। श्रीराम शर्मा
आचार्य कृत भाषयों
के अनुसार अश्व
शब्द का अर्थ
शक्ति, गौ शब्द
का अर्थ पोषण
है। इससे अश्वमेध
का अर्थ घोड़े
का बलि से
इतर होती प्रतीत
होती है।
सोम: कुछ लोग इसे शराब (मद्य) मानते हैं लेकिन कई अनुवादों के अनुसार इसे कूट-पीसकर बनाया जाता था। अतः ये शराब जैसा कोई पेय नहीं लगता। पर इसके असली रूप का निर्धारण नहीं हो पाया है।


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